महालक्ष्मी व्रत कथा

महालक्ष्मी व्रत कथा

महालक्ष्मी व्रत कथा -

प्रथम कथा –
बहुत पुरानी बात है. एक गाव मे एक ब्राह्मण रहता था. वह ब्राह्मण नियमानुसार भगवान विष्णु का पूजन प्रतिदिन करता था. उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे दर्शन दिये और इच्छा अनुसार वरदान देने का वचन दिया. ब्राह्मण ने माता लक्ष्मी का वास अपने घर मे होने का वरदान मांगा. ब्राह्मण के ऐसा कहने पर भगवान विष्णु ने कहा यहा मंदिर मे रोज एक स्त्री आती है और वह यहा गोबर के उपले थापति है. वही माता लक्ष्मी है. तुम उन्हे अपने घर मे आमंत्रित करो. देवी लक्ष्मी के चरण तुम्हारे घर मे पड़ने से तुम्हारा घर धन धान्य से भर जाएगा. ऐसा कहकर भगवान विष्णु अदृश्य हो गए. अब दूसरे दिन सुबह से ही ब्राह्मण देवी लक्ष्मी के इंतजार मे मंदिर के सामने बैठ गया. जब उसने लक्ष्मी जी को गोबर के उपले थापते हुये देखा, तो उसने उन्हे अपने घर पधारने का आग्रह किया. ब्राह्मण की बात सुनकर लक्ष्मी जी समझ गयी की यह बात ब्राह्मण को विष्णु जी ने ही कही है. तो उन्होने ब्राह्मण को महालक्ष्मी व्रत करने की सलाह दी . लक्ष्मी जी ने ब्राह्मण से कहा कि तुम 16 दिनो तक महालक्ष्मी व्रत करो और व्रत के आखिरी दिन चंद्रमा का पूजन करके अर्ध्य देने से तुम्हारा व्रत पूर्ण होगा. ब्राह्मण ने भी महालक्ष्मी के कहे अनुसार व्रत किया और देवी लक्ष्मी ने भी उसकी मनोकामना पूर्ण की. उसी दिन से यह व्रत श्रद्धा से किया जाता है.

द्वतीय कथा –
एक बार हस्तिनापूर मे महालक्ष्मी व्रत के दिन गांधारी ने नगर की सारी स्त्रियो को पूजन के लिए आमंत्रित किया, परंतु उसने कुंती को आमंत्रण नहीं दिया. गांधारी के सभी पुत्रो ने पूजन के लिए अपनी माता को मिट्टी लाकर दी और इसी मिट्टी से एक विशाल हाथी का निर्माण किया गया और उसे महल के बीच मे स्थापित किया गया. नगर की सारी स्त्रीया जब पूजन के लिए जाने लगी, तो कुंती उदास हो गयी. जब कुंती के पुत्रो ने उसकी उदासी का कारण पूछा तो उसने सारी बात बताई. इस पर अर्जुन ने कहा माता आप पूजन की तैयारी कीजिये मै आपके लिए हाथी लेकर आता हूँ. ऐसा कहकर अर्जुन इन्द्र के पास गया और अपनी माता के पूजन के लिए ऐरावत को ले आया. इसके बाद कुंती ने सारे विधी विधान से पूजन किया और जब नगर की अन्य स्त्रियो को पता चला, कि कुंती के यहा इन्द्र के ऐरावत आया है. तो वे भी पूजन के लिए उमड़ पड़ी और सभी ने सविधि पूजन सम्पन्न किया.

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